दीन को दयालु देव दानि तुलसीदास
सेईये सुसाहिब राम सो तुलसीदास
रुद्राष्टकम् तुलसीदास नमामीशमीशान
जानकी नाथ सहाय करें जब
चरन कमल बन्दौ हरिराई सूरदास
अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल सूरदास
तज मन हरि विमुखन को सङ्ग सूरदास
काया हरि के काम न आई।
सुने री मैंने निरबल के बल राम सूर
जाके प्रिय न राम बेदैही तुलसी
ममता तू न गई मेरे मन ते तुलसी
ऐसो को उदार जग माहीं तुलसी
श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन तुलसी
मैं भरोसे अपने राम के तुलसी
बन्दौ रघुपति करुना निधान तुलसी
रघुपति भक्ति करत कठिनाई तुलसी
देहि सतसंग निज अंग श्रीरंग तुलसी
है नीको मेरो देवता तुलसी
यह बिनती रघुबीर गुसाईं तुलसी
ऐसे राम दीन हितकारी तुलसी
जानकीस की कृपा जगावती तुलसी
काया हरि के काम न आई।
ऐसी कौन करे गुरु बिन
जो तू राम नाम चित्त धरतौ।
ऐसी मूढ़ता या मन की॥
जिनकी लगन राम सङ्ग नाहीं॥
तुम मोरी राखो लाज हरि!
जननी मैं न जीऊँ बिन राम तुलसीदास
जो हम भले बुरे तो तेरे।
चले गये दिल के दामनगीर॥
खूब तेरा नूर खूब तेरी वाह के।
दीनन दुःख हरण देव सन्तन हितकारी॥
गाइये गणपति जग वन्दन।
जाएगी लाज तुम्हारी!
जैसे लाज रखी द्रौपदी की
तू दयालु, दीन हौं, तू दानी, हौं भिखारी
मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो।
भज मन राम चरण सुखदाई
प्रीति करि काहु सुख न लह्यो।
हरि तुम बहुत अनुग्रह किन्हों
अब की माधव मोहि उधारि।
है हरि नाम कौ आधार।
ना जाने कौनसे गुण पर दयानिधि बिंदु
प्रबल प्रेम के पाले पड़कर बिंदु
अब तो गोविंद के गुण गाले बिंदु
आराम के साथी थे क्या क्या बिंदु
दया के धाम हो भगवन बिंदु
कृपा की जो न होती आदत तुम्हारी बिंदु
धर्मों में सबसे बढ़कर हमने ये धर्म माना बिंदु
दृढ इन चरणन केरो भरोसो
मो सम कौन कुटिल खल कामी।
मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।
मधुकर स्याम हमारे चोर॥
निर्गुन कौन देस को बासी।
उधौ मन माने की बात॥
निसदिन बरसत नैन हमारे।
ऊधौ कर्मन की गति न्यारी।
सोइ रसना जो हरिगुन गावै।
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे।
अँखियन हरि दरसन की प्यासी।
रे मन कृष्ण नाम कहि लीजे।
न यूँ घनश्याम तुमको दुःख से...
रघुवर तुमको मेरी लाज॥
सुन मन मूढ़ सिखावन मेरो॥
राम राम राम जीव जौ लोँ तू न जप
हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करो।
है हरि नाम कौ आधार।
है नमन पाद पद्मों में, बारम्बार बाबा तुलसी।
नवधा भक्ति रामचरितमानस
राम नाम मनि दीप धरुँ
राम केवट संवाद
संवाद लक्ष्मण गीता
कागभुशुण्डि गरुड़ संवाद रामचरितमानस
विभीषण गीता - राम-विभीषण-संवाद
"जागु, जागु, जीव जड़ !
देहि अवलम्ब कर-कमल कमलारमन
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
मंगल करनि कलिमल हरनि