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Jag Jag Jag Jeev Jad Tulsidas 73
विनय पत्रिका ७३ तुलसीदास भजन लिरिक्स
"जागु, जागु, जीव जड़ !"
तुलसीदास जी का यह दिव्य भजन आत्मा को अज्ञान की गहरी नींद से जगाने का आह्वान है।
यह केवल भक्ति गीत नहीं, बल्कि मानव जीवन को भीतर से झकझोर देने वाली पुकार है-
अपने भीतर सोई चेतना को पहचानो, प्रभु की ओर लौटो।
राग तोड़ी की गंभीर, ध्यानमयी अनुभूति इस पद के संदेश को और भी गहन बना देती है।
यह राग मन को अंतर्मुख बनाता है, और भक्ति को हृदय की गहराइयों तक पहुँचा देता है।
जागु जागु जीव जड़ ! जोहै जग-जामिनी। देह-गेह-नेह जानि जैसे घन- दामिनी ॥१॥
अरे मूर्ख जीव ! जाग, जाग! इस संसाररूपी रात्रि को देख ! शरीर और घर-कुटुम्ब के प्रेम को ऐसा क्षणभंगुर समझ जैसे बादलों के बीच की बिजली, जो क्षणभर चमककर ही छिप जाती है।
सोवत सपनेहूँ सहै संसृति। सन्ताप रे।
बूड्यो मृग-बारि खायो जेवरी को साँप रे॥२॥
(जागने के समय ही नहीं) तू सोते समय सपने में भी संसार के कष्ट ही सह रहा है; अरे! तू भ्रम से मृग-तृष्णा के जल में डूबा जा रहा है और तुझे रस्सी का सर्प डस रहा है।
कहैं बेद-बुध, तू तो बूझि मनमाहिं रे।
दोष-दुख सपनेके जागे ही पै जाहिं रे॥ ३॥
वेद और विद्वान् पुकार-पुकारकर कह रहे हैं, तू अपने मन में विचारकर समझ ले कि स्वप्न के सारे दुःख और दोष वास्तव में जागने पर ही नष्ट होते हैं।
तुलसी जागे ते जाय ताप तिहू ताय रे।
राम-नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे॥४॥
हे तुलसी ! संसार के तीनों ताप अज्ञानरूपी निद्रा से जागने पर ही नष्ट होते हैं और तभी श्रीराम-नाम में अहैतु की स्वाभाविक विशुद्ध प्रीति उत्पन्न होती है।