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Dehi Satsang Nij Ang Shrirang Tulsidas
तुलसीदास विनय पत्रिका Vinay Patrika
देहि सतसंग निज अंग श्रीरंग !
भवभंग। कारण शरण शोकहारी।
ये तु भवदंघ्रिपल्लव-समाश्रित सदा,
भक्तिरत, विगत संशय, मुरारी॥
हे रमापते ! मुझे सत्संग दीजिये, क्योंकि वह आपकी प्राप्ति का एक प्रधान साधन है, संसार के आवागमन का नाश करने वाला है और शरण में आये हुए जीवों के शोक का हरने वाला है। हे मुरारी ! जो लोग सदा आपके चरण-पल्लव के आश्रित और आपकी भक्ति में लगे रहते हैं, उनका अविद्याजनित सन्देह नष्ट हो जाता है।
असुर सुर नाग नर यक्ष गन्धर्व खग,
रजनीचर, सिद्ध, ये चापि अन्ने।
संत-संसर्ग त्रैवर्गपर, परमपद, प्राप्य,
निःप्राप्यगति त्वयि प्रसन्ने॥
दैत्य, देवता, नाग, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व, पक्षी, राक्षस, सिद्ध तथा और भी दूसरे जितने जीव हैं; वे सभी (आपकी भक्ति में लगे हुए) संतों के संसर्ग से अर्थ, धर्म, काम से परे आपके उस नित्य परमपद को प्राप्त कर लेते हैं, जो अन्य साधनों से नहीं मिल सकता, परन्तु केवल आपके प्रसन्न होने से ही मिलता है।
वृत्र बलि बाण प्रहलाद मय व्याध,
गज गृध्र द्विजबन्धु निजधर्मत्यागी।
साधुपद-सलिल-निर्भूत-कल्मष सकल,
श्वपच-यवनादि कैवल्य-भागी॥
वृत्रासुर, बलि, बाणासुर, प्रह्वाद, मय, व्याध (वाल्मीकि), गजेन्द्र, गिद्ध जटायु और ब्राह्मणोचित कर्म से पतित अजामिल ब्राह्मण तथा चाण्डाल, यवनादि भी संतों के चरणोदक से अपने सारे पापों को धोकर कल्याण-पद के भागी हो गये।
शान्त, निरपेक्ष, निर्मम, निरामय, अगुण,
शब्दब्रह्मैकपर, ब्रह्मज्ञानी।
दक्ष समदृक स्वदृक विगत अति,
स्वपरमति परमरतिविरति तव चक्रपानी॥
(वे साधु कैसे हैं) चित्त से सारी कामनाएँ निकल जाने के कारण शान्त, किसी भी वस्तु या स्थिति की आकांक्षा न रहने से निरपेक्ष, ममता से रहित, उपाधिरहित, तीनों गुणों से अतीत, शब्दब्रह्म अर्थात् वेद के जानने वालों में मुख्य और ब्रह्मवेत्ता हैं। जिस कार्य के लिये मनुष्य देह मिला है उसे पूरा करने में कुशल, सम-द्रष्य, अपने आत्मस्वरूप को जानने वाले, अपनी-परायी बुद्धि अर्थात् भेदबुद्धि से रहित, सब कुछ अपने श्रीराम का समझने वाले और हे चक्रपाणे! वे संसार के भोगों से विरक्त और आप परमात्मा के अनन्य प्रेमी हैं।
विश्व-उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा,
त्यक्तमदमन्यु, कृत पुण्यरासी।
यत्र तिष्ठन्ति, तत्रैव अज शर्व,
हरि सहित गच्छन्ति क्षीराब्धिवासी॥
संसार के उपकार के लिये उनका चित्त सदा व्याकुल रहता है, मद और क्रोध को उन्होंने त्याग दिया है और पुण्यों की बड़ी पूँजी कमायी है। ऐसे संत जहाँ रहते हैं, वहाँ ब्रह्मा और शिवजी को साथ लेकर क्षीर-समुद्रनिवासी श्रीहरि भगवान् आप-से-आप दौड़े जाते हैं।
वेद-पयसिन्धु, सुविचार मन्दरमहा,
अखिल-मुनिवृन्द निर्मथनकर्ता।
सार सत्संगमुद्धृत्य इति निश्चितं,
वदति श्री कृष्ण वैदर्भिभर्ता॥
(सत्संग कैसा है) वेद क्षीर-समुद्र है, उसका भलीभाँति विचार ही मन्दराचल है, समस्त मुनियों के समूह उसे मथने वाले हैं। मथने पर सत्संगरूपी सार-अमृत निकला। यह सिद्धान्त रुक्मणीपति भगवान् श्रीकृष्ण बतलाते हैं।
शोक-संदेह, भय-हर्ष, तम-तर्षगण,
साधु सद्युक्ति विच्छेदकारी।
यथा रघुनाथ-सायक निशाचर-चमू-
निचय-निर्दलन-पटु-वेग-भारी॥
संत-महात्माओं की सत्-युक्ति शोक, सन्देह, भय, हर्ष, अज्ञान और वासनाओं के समूह को इस प्रकार नष्ट कर डालती है, जैसे श्रीरघुनाथजी के बाण राक्षसों की सेना के समुदाय को कौशल और बड़े वेग से नष्ट कर देते हैं।
यत्र कुत्रापि मम जन्म निजकर्मवश,
भ्रमत जगजोनि संकट अनेकं।
तत्र त्वद्भक्ति, सज्जन समागम,
सदा भवतु मे राम विश्राममेकं॥
हे रामजी ! अपने कर्मवश जहाँ कहीं मेरा जन्म हो, जिस-जिस भी योनि में अनेक संकट भोगता हुआ भटकूँ, वहाँ ही मुझे आपकी भक्ति और संतों का संग सदा मिलता रहे। हे राम ! बस, मेरा एकमात्र यही आश्रय हो।
प्रबल भवजनित त्रैव्याधिभैषज भगति
भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी।
सन्त भगवन्त अन्तर निरन्तर नहीं,
किमपि मति मलिन कह 'दास तुलसी'॥
संसारजनित (भौतिक, दैहिक और दैविक) तीन प्रकार की प्रबल पीड़ा का नाश करने के लिये आपकी भक्ति ही एकमात्र औषधि है और अद्वैतदर्शी (चराचर में एक आपको ही देखने वाले) भक्त ही वैद्य हैं। वास्तव में संत और भगवान् में कभी किञ्चित् भी अन्तर नहीं है-मलिन-बुद्धि तुलसीदास तो यही कहता है।
🚩निरंजनी अद्वैत आश्रम, भाँवती🥀