🕉️🎯👌🏻श्री हरिपुरुषाय नमः🌍🫂
Dehi Avlamb kar Kamal kamalasan
रामायण रूपक तुलसीदास Tulsidas
विनय पत्रिका ५८ Vinay Patrika 58
देहि अवलम्ब कर-कमल कमलारमन,
दमन-दुख समन सन्ताप भारी।
ग्रसन अज्ञान निसिपति बिधुन्तुद गर्व,
काम करि मत्त हरि दूषनारी॥
हे लक्ष्मीकान्त ! अपने कर कमलों का मुझे सहारा दीजिये, जो दुःख के दमन करने वाले और विशाल सन्ताप के नाशक हैं। हे दूषण नाशक! आप अज्ञानरूपी चन्द्रमा के ग्रसने में राहु रूप हैं और कामदेव रूपी मतवाले हाथी के गर्व का मर्दन करने में सिंह रूप है।
बपुष ब्रह्माण्ड सुप्रबत्ति लङ्का दुर्ग,
रचित मन दनुज मय रूप धारी।
बिबिध कोसौघ अति रुचिर मंदिर निकर,
सत्वगुन प्रमुख त्रय कटक-कारी॥
शरीर रूपी भूमण्डल में अत्यन्त प्रवृत्ति अर्थात् संसारिक विषयों का ग्रहण रूपी लंका का गढ़ है, जिसको मन रूपी दानव ने मय दैत्य का रूप धारण कर बनाया है। इसमें विद्यमान अनेकों कोष अर्थात् अन्नमय, प्राणमय मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोष इत्यादि, अत्यन्त सुन्दर मन्दिरों को श्रेणी हैं और तीनों गुण सत, रज, तम प्रधान सेनापति रूप है।
कुनप अभिमान सागर भयङ्कर घोर,
बिपुल अवगाह दुस्तर अपारं।
नक रागादि सङ्कल मनोरथ सकल,
सङ्ग सङ्कल्प बीची बिकारं॥
देहाभिमान रूपी अत्यन्त भयंकर समुद्र अत्यंत ही अथाह, दुर्गम और अपार है। राग द्वेषादि रूपी घड़ियालों से भरा है, सम्पूर्ण कामना तथा आसक्ति की प्रतिज्ञाएँ तरंग-मालाओं का परिणाम है।
मोह दसमौलि तदभ्रात अहंकार,
पाकारिजित-काम बिस्राम हारी। लोभ-अतिकाय मत्सर-महोदर दुष्ट,
क्रोध पापिष्ट बिबुधान्तकारी॥
मोह रूपी रावण, अहंकार रूपी उसका भाई कुम्भकर्ण, कामदेव रूपी इन्द्रजीत आनन्द के हरनेवाले हैं। लोभ रूपी अतिकाय, मत्सर रूपी दुष्ट महोदर, क्रोध पापात्मा देवांतक रूपी है।
द्वेष-दुर्मुख दम्भ-खर अकम्पन-कपट,
दर्प-मनुजाद मद सूलपानी।
अमित बल परमदुर्जय निसाचर निकर,
सहित षडबर्ग मो जातुधानी॥
द्रोह रूपी दुर्मुख, दंभ रूपी खर, कपट रूपी अकम्पन, दर्प रूपी मनुजभक्षक और मद रूपी शूलपाणि असीम बली, अत्यन्त अजेय राक्षसों का समुदाय है, इन मोह आदि षड्वर्ग राक्षसों के साथ, इन्द्रियाँ रुपिणी राक्षसियाँ भी शरीर रूपी कोट में निवास करती हैं।
जीव भवदध्रि सेवक विभीषन बसत,
मध्य दुष्टाटवी ग्रसित चिन्ता।
नियम जम सकल सुरलोक लोकेस,
लंकेस-बस नाथ अत्यंत भीता॥
आप के चरणों का सेवक जीव रूपी विभीषण दुष्टों रूपी वन के बीच चिन्ता से जकड़ा हुआ निवास करता है। हे नाथ! नियम रूपी देवलोक और संग्रम रूपी लोकपाल सब रावण के वश में होकर अत्यन्त भयभीत हो रहे है।
ज्ञान अवधेस गृह-गेहिनी भक्ति सुभ,
तत्र अवतार भू भार हो।
भक्त संकष्ट अवलोक पितु वाक्य कृत,
गमन किय गहन वैदेहि भर्ती॥
ज्ञान रूपी राजा दशरथ और सुन्दर भक्ति रूपिणी गृहभार्या कौशल्याजी के यहाँ जन्म लेकर आप धरती का बोझ हरने वाले हैं। हे जानकी नाथ ! भक्तों को संकटापन्न देखकर जैसे पिता के वचन से आपने वन-गमन किया वैसे ही मेरे हृदय रुपी वन में पधारिये।
मोच्छ साधन अखिल भालु मर्कट विपुल,
ज्ञान सुग्रीव कृत जलधि सेतू ।
प्रबल वैराग्य दारुन प्रभजन तनय,
विषय वन भवनमिव धूमकेतू॥
मोक्ष के सम्पूर्ण साधन समूह भालू-बन्दर रूप हैं, ज्ञान रूपी सुग्रीव ने समुद्र में पुल बना दिया हैं। प्रबल वैराग्य रूपी पवन कुमार विषय समूह रूपी मन्दिर के लिये भीषण अग्नि के समान है।
दुष्ट दनुजेस निवंस कृत दास हित,
विश्व दुख हरन बोधेकरासी।
अनुज निज जानकी सहित हरि सर्वदा, दासतुलसी हृदय-कमल-बासी॥
हे सम्यक् ज्ञान के अद्वितीय राशि, रामचन्द्रजी! आपने भक्तों के उपकारार्थ दुष्ट रावण का वंश सहित नाश करके संसार का दुःख दूर कीजिए। अपने छोटे भाई लक्ष्मणजी और जानकीजी के सहित सदा तुलसीदास के हृदयरूपी कमल में निवास कीजिए।