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Lakshman Geeta AyodhyadaKand

रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में निषादराज और लक्ष्मण का यह ज्ञानवर्धक संवाद लक्ष्मण गीता के नाम से प्रसिद्ध है। 


भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी॥

बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी॥

काहु न कोउ सुखदुखकर दाता। निजकृत कर्मभोग सबभ्राता॥


तब लक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले- हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥


जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा॥

जन्म मरन जहँ लग जगजालू। संपति बिपति कर्म अरु कालू॥


संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन- ये सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल- जहाँ तक जगत के जंजाल हैं,॥


धरनिधामधन पुर परिवारू। सरगु नरक जहँ लग ब्यवहारू॥

देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथ नाहीं॥


धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं॥


सपनें  होइ  भिखारि  नृप, रंक  नाकपति  होइ।

जागें लाभु न हानि कछु, तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥


जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है, वैसे ही इस दृश्य-प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए।


अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥

मोहनिसाँ  सबु  सोवनिहारा। देखिअ  सपन  अनेक प्रकारा॥


ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए। सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं।


एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी  प्रपञ्च  बियोगी॥

जानिअ तभी जीव जग जागा जब सब बिषयबिलास बिरागा॥


इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए।


होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥

सखा  परम  परमारथु  एहू। मन क्रम बचन रामपद नेहू॥


विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है।


राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत  अलख  अनादि अनूपा॥

सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥


श्री रामजी परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आने वाले) अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य 'नेति-नेति' कहकर निरूपण करते हैं॥


भगत भूमि भूसुर सुरभि, सुर हित लागि कृपाल।

करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटे जगजाल॥


वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गो और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं।