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Vibheeshan Vibhishan Geeta Ramayana 

विभीषण गीता #राम-विभीषण-संवाद


रावन  रथी   बिरथ   रघुबीरा।

देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥

अधिक प्रीति मन भा सन्देहा।

बंदि चरन कह सहित सनेहा॥1॥


रावण को रथ पर और श्री रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गए। प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया (कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेंगे)। श्री रामजी के चरणों की वंदना करके वे स्नेहपूर्वक कहने लगे...


नाथ न रथ नहि तन पद त्राना।

केहि बिधि जितब बीरबलवाना॥

सुनहुँ सखा कह कृपानिधाना।

जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥2॥


हे नाथ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान्‌ वीर रावण

किस प्रकार जीता जाएगा? कृपानिधान श्री रामजी ने कहा- हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है ॥


सौरज धीरज तेहि रथ चाका।

सत्य सील दृढ़ध्वजा पताका॥

बल बिबेक  दम परहित घोरे।

छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥


शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥


ईस  भजन  सारथी  सुजाना।

बिरति चर्म  सन्तोष  कृपाना॥

दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा।

बर बिग्यान कठिन कोदण्डा॥4॥


ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥


अमल अचल मन त्रोण समाना।

सम यम नियम सिलीमुख नाना॥

कवच  अभेद  बिप्र  गुरु  पूजा।

एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥


निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि)

यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥


सखा  धर्ममय  अस रथ जाकें।

जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥6॥

हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है॥


महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।

जाकें अस रथ होइ दृढ़, सुनहुँ सखा मतिधीर॥


हे धीरबुद्धि वाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान्‌ दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)॥


सुनि प्रभु बचन बिभीषन, हरषि गहे पद कंज।

एहि मिस मोहि उपदेसेहुँ, राम कृपा सुख पुंज॥


प्रभु के वचन सुनकर विभीषणजी ने हर्षित होकर उनके चरण कमल पकड़ लिए (और कहा-) हे कृपा और सुख के समूह श्री रामजी! आपने इसी बहाने मुझे (महान्‌) उपदेश दिया॥