🕉️🎯👌🏻श्री हरिपुरुषाय नमः🌍🫂
10वें सिक्ख गुरु, गुरु गोबिंद सिंह द्वारा इस शब्द (संगीत रचना) को खोजे और मंत्रमुग्ध हुए कुछ दिन हो गए हैं। मैं खो गया हूँ - गीत के बोल में, आवाज में, रचना में और इसके पीछे के अर्थ पर विचार करने में।
Re Man Aiso Kar Sannyaasa Nanak
नानक सबद गुरबानी Shabad Gurbaani
रे मन ऐसो कर संन्यासा।
बन से सदन सब एककर समझै,
मन ही मांही उदासा॥
हे मन! ऐसा संन्यास धारण करो। घर और जंगल दोनों को एक समान कर मानो और मन में उदासीनता अर्थात् वैराग्य से ओत-प्रोत रहे।
बालातन से हरि भजे,
जग से रहत उदास।
'नानक' ऐसे सन्त की,
तीरथ करता आस॥
जत की जटा जोग को मज्जन,
नेम के नाखून बढ़ाओ।
ज्ञान गुरु आतम उपदेसहुँ,
नाम भभूत लगाओ॥
जत माने संयम की जटा हो, योगरूपी स्नान और नियमरूपी (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान) नाखून बढ़ाओ।
अलप अहार सुलप-सी निद्रा,
दया छमा तन प्रीत।
शील सन्तोष सदा निरवाहिबौ,
होइहौं त्रिगुण अतीत॥
कम खाना, मद्धम सोना, दया क्षमा का गहना, प्रभु प्रीति, शील सन्तोष धृति, स्थिर मति, गुणातीत रहना।
काम क्रोध अहंकार लोभ हठ,
मोह न मन सो लावै।
तबही आत्म तत् को दरसे,
परम पुरख कहँ पावै॥
काम-लोलुपता, गुस्सा, घमण्ड न हो।
मनहि दुराग्रह मोह न आवे।
सद्गुरु की शरण तब आतम दरस हो।
परम पुरुष परमात्मा पावे॥
तुलसी जौं पै राम सों,
नाहिन सहज सनेह।
मूंड़ मुड़ायो बादिहींं,
भाण्ड भयो तजि गेह॥
तुलसी कहते हैं कि यदि प्रभु राम से स्वाभाविक प्रेम नहीं है तो फिर वृथा ही मूंड मुंडाया, साधु हुए और घर छोड़कर भांड बने।
"जिस संन्यास की गुरु गोबिंद सिंह बात कर रहे हैं, यह वही संन्यास है जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं- करते हुए अकर्ता हो जाना, करते हुए भी ऐसे हो जाना जैसे मैं करने वाला नहीं हूँ, बस संन्यास का यही लक्षण है। गृहस्थ का क्या लक्षण है? गृहस्थ का लक्षण है, हर चीज में कर्ता हो जाना। संन्यासी का लक्षण है, हर चीज में अकर्ता हो जाना। संन्यास जीवन को देखने का और ही ढंग है। बस ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में घर का फर्क नहीं है, ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में जगह का फर्क नहीं है, भाव का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में परिस्थिति का फर्क नहीं है, मनः स्थिति का फर्क है। कोई कहीं हो- जंगल में बैठे, पहाड़ पर बैठे, गिरि-कंदराओं में बैठे, संसार के बाहर जाने का उपाय नहीं है- परिस्थिति बदलकर नहीं है! संसार से बाहर जाने का उपाय है मनः स्थिति बदलकर। जिसे संन्यास कह रहे है, वह मन को रूपांतरित करने की एक प्रक्रिया है। जो जहाँ है, वहाँ से हटे नहीं, क्योंकि हटते केवल कमजोर हैं। भागते केवल वे ही हैं जो भयभीत हैं और जो संसार को ही झेलने में भयभीत है, वह परमात्मा को नहीं झेल सकेगा, यह मैं आपसे कह देता हूँ, जो संसार का ही सामना करने में डर रहा है वह परमात्मा का सामना कर पाएगा? नहीं कर पाएगा,
संसार जैसी कमजोर चीज जिसे डरा देती है, परमात्मा जैसा विराट् जब सामने आएगा तो उसकी आँखें ही झप जाएंगी, वह ऐसा भागेगा कि फिर लौटकर देखेगा भी नहीं। यह क्षुद्र-सा चारों तरफ जो है, यह डरा देता है तो उस विराट् के सामने खड़े होने की क्षमता नहीं होगी। और फिर अगर परमात्मा यही चाहता है कि लोग सब छोड़कर भाग जाएं तो उसे सबको यहाँ भेजने की जरूरत ही नहीं रह जाती। नहीं, उसकी मर्जी और मंशा कुछ और है। मर्जी और मंशा यही है कि पहले लोग क्षुद्र को सहने में समर्थ हो जाएं, ताकि विराट् को सह सकें। संसार सिर्फ एक प्रशिक्षण है, एक ट्रेनिंग है, इसलिए जो ट्रेनिंग को छोड़कर भागता है उस भगोड़े को संन्यासी नहीं कह सकते। जीवन जहाँ है, वहीं है। संन्यासी हो गए, फिर तो भागना ही नहीं। संन्यासी हो गए फिर तो भागना ही नहीं, फिर तो वहीं जमकर खड़े हो जाना है, क्योंकि फिर अगर संन्यास संसार के सामने भागता हो तो कौन कमजोर है, कौन सबल है?
फिर तो मैं कहता हूँ कि अगर संन्यास इतना कमजोर है कि भागना पड़ता है तो फिर संसार ही ठीक है। फिर सबल को ही स्वीकार करना उचित है। तो पहली तो बात संन्यास की है कि भागना मत! जहां खड़े हैं जिंदगी की सघनता में पैर जमाकर ….लेकिन उसे प्रशिक्षण बना लेना। उस सबसे सीखना, उस सबसे जागना, उस सबको अवसर बना लेना। पत्नी होगी पास, भागना मत! क्योंकि पत्नी से भागकर कोई स्त्री से नहीं भाग सकता। पत्नी से भागना तो बहुत आसान है। पत्नी से तो वैसे ही भागने का मन पैदा हो जाता है, पति से भागने का मन पैदा हो जाता है। जिसके पास हम होते हैं उससे ऊब जाते हैं। नए की तलाश मन करता है। पत्नी से भागना बहुत आसान है। भाग जाएं, फिर भी स्त्री से न भाग पाएंगे और जब पत्नी-जैसी स्त्री को निकट पाकर स्त्री से मुक्त न हो सके तो फिर कब मुक्त हो सकेंगे? अगर पति जैसे प्रीतिकर मित्र को निकट पाकर पुरुष की कामना से मुक्ति न मिली तो फिर छोड़कर कभी न मिल सकेगी। इस देश ने पति और पत्नी को सिर्फ ‘काम’ का उपकरण नहीं समझा, सेक्स वासना का साधन नहीं समझा है। इस मुल्क की गहरी समझ आज भी कुछ और है, और वह यह है कि पति-पत्नी प्रारंभ करें वासना से और अंत हो जाएं निर्वासना पर। इसमें वे एक-दूसरे के सहयोगी बनें।
स्त्री सहयोगी बने पुरुष की, कि पुरुष स्त्री से मुक्त हो जाए। पुरुष सहयोगी बने पत्नी का, कि पत्नी पुरुष की कामना से मुक्त हो जाए। यह अगर सहयोगी बन जाएं तो बहुत शीघ्र निर्वासना को उपलब्ध हो सकते हैं। लेकिन ये इसमें सहयोगी नहीं बनते। पत्नी डरती है कि कहीं पुरुष निर्वासना को उपलब्ध न हो जाए। वह डरी रहती है। अगर पति मंदिर जाता है तो वह ज्यादा चैंकती है; सिनेमा जाता है, तो विश्राम करती है। पति चोर हो जाए समझ में आता है- प्रार्थना, भजन-कीर्तन करने लगे तो समझ में बिल्कुल नहीं आता है- खतरा है! पति भी डरता है कि पत्नी कहीं निर्वासना में न चली जाए। अजीब है हालत। हम एक-दूसरे का शोषण कर रहे हैं इसलिए इतने भयभीत हैं। हम एक-दूसरे के मित्र नहीं हैं। क्योंकि मित्र तो वही है जो वासना के बाहर ले जाए। क्योंकि वासना दुःख है, और वासना दुष्पूर है। वासना कभी भरेगी नहीं। वासना में हम ही मिट जाएंगे, वासना नहीं मिटेगी। तो मित्र तो वही है, पति तो वही है, पत्नी तो वही है, जो वासना से मुक्त करने में साथी बने और तब शीघ्रता से यह हो सकता है। इसलिए पत्नी को मत छोड़ो, पति को मत छोड़ो, किसी को मत छोड़ो- इस प्रशिक्षण का उपयोग करो। हाँ, इसका उपयोग करो परमात्मा तक पहुंचने के लिए, संसार को बनाओ सीढ़ी। संसार को दुश्मन मत बनाओ, बनाओ सीढ़ी। चढ़ो उस पर, उठो उससे। उससे ही उठकर परमात्मा को छुओ ।और संसार सीढ़ी बनने के लिए है। संन्यास अर्थात् मन को सम में स्थापित कर देना। यही वास्तविक संन्यास है। संन्यास घर से भागकर कपड़ों को रंग लेने का नाम नहीं है बल्कि प्रभु में अपने मन को रंग कर फिर जहाँ आप रहते हो, वहीं पर भीतर से जागने का नाम है।"
🎙️सिंह बन्धु Singh Bandhu
राग रामकली Raag Ramkali
🎙️शिवप्रीत सिंह Shivpreet Singh
🎙️आशा भोंसले Aasha Bhonsle