🕉️🎯👌🏻श्री हरिपुरुषाय नमः🌍🫂
Preetam Se Karke Preet Sakhi
दास सतार लिरिक्स Das Sataar
प्रीतम से करके प्रीत, सखी री!
मैं तो हार गयी।
ये प्रीत की उलटी रीत॥
चौसर खेलन जब मैं आयी,
हार-जीत की बाजी लगायी,
चौसर खेलत खेलत
प्रीतम जीत गये मैं हारी।
हार के मैं तो पिया की हो गयी,
मैं प्रीतम पर वारी,
मेरी हार में हो गयी जीत॥
फेंक सखी री कर्म का पासा,
ये अवसर पाया है खासा,
बारह बुर्ज चौरासी खानें,
खेलती नरद है सोलहा।
मैं तो हारी तू हार सखी री,
है अवसर अनमोला,
देख जाये उमरिया बीत॥
प्रेम की चौसर ज्ञान की बाजी
मैं राजी मेरा प्रीतम राजी,
जोग जुगत से चौसर खेली,
प्रीतम घर में पायी।
'दास सतार' कहे कर जोरी,
फेर दो राम दुहाई,
नित गाओ मिलन के गीत॥
भजन का एक अन्तरा थोड़ा अर्थदृष्टि से क्लिष्ट प्रतीत हो रहा है, अतः कई साधकों ने कॉल किया है कि पूरा भजन समझ में आ रहा है, पर भजन के एक पद के शब्द और अर्थ समझ नहीं आ रहे, अतः उन्हीं शब्द और अर्थ पर आपका तनिक ध्यान खींचता हूँ...
फेंक सखी री कर्म का पासा अर्थात् निष्काम भाव से कर्म करना। यही कर्म का पासा फेंकना है। शुभ और अशुभ दोनों कर्मों का विधिसहित परित्याग, क्योंकि शुभ कर्म का कर्ता बनोगे तो स्वर्ग में जाओगे और अशुभ कर्म करोगे तो नर्क है ही, आना-जाना लगा ही रहेगा। कभी ऊपर तो कभी नीचे। चाहे चक्कर आवे या जी मिचलावे, पर इन्हीं दोनों पलड़ों में झूलते रहना पड़ेगा। अत: कर्म बन्धन का हेतु है और निष्काम कर्म बन्धन का हेतु नहीं है। फिर कर्मफलों से छूटने का नैष्कर्म्य से बढ़िया कोई उपाय भी नहीं है। ऐसा अभिप्राय है। अब भजन की अगली पंक्ति पर दृष्टि डालते हैं...*बारह बुर्ज माने बारह कोट* जिसमें यह शरीर रहता है। चार वर्ण (मस्तिष्क ब्राह्मण, धड़-भुजा क्षत्रिय, पेट वैश्य और पाद शूद्र) चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) चार अवस्था (बाल्य, किशोर, यौवन और वृद्ध) इन बारह और चौरासी योनियों में ये शरीर रहता (आता-जाता) है। नरद माने चौसर खेलने की गोटियाँ। तो वह गोटियां क्या है? (पंचकर्मेंद्रियाँ+पंचज्ञानेन्द्रियाँ+पंचप्राण+अन्त:करण) या शरीर के सोलह संस्कार जिनमें जीवन विकसित (खेलता) होता है या दस दोष+छह पशुकर्म) इनमें से जो भी हो, हमें इस पर विवाद नहीं करना, क्योंकि वस्तु के इर्दगिर्द घूमना हमारा उद्देश्य नहीं है। वस्तु प्राप्ति हमारा ध्येय है। हमें संकीर्णता से नहीं वरन् व्यापक दृष्टिकोण से विचार करना है कि भजन का मूलभूत तात्पर्य क्या है! तो कहने का तात्पर्य यह है, अन्तर्मुखी वृत्ति बहिर्मुखी वृत्ति से कह रही है कि मैं तो हारी सखी तू हार' हारना माने इनको मैं नहीं मानना और इनको मेरा (अपना) नहीं मानना। एक-एक को विचारपूर्वक छोड़ देना। मैं-मेरा ये आपस में जो घुल-मिल गये हैं। यही तो चिज्जड़ ग्रन्थि है, यही भ्रान्ति है। इसी से देह अभिमान उत्पन्न होता है। इस अंहकार का विसर्जन ही हारना है। इसी हारने में मजा है।
हारा तो हरिजन भला, जीतन दे संसार।
हारे को हरि मिले, जीता जम के द्वार।
देह को 'मैं' मानना, यही सबसे बड़ा पाप है।
सारे पाप इसके पुत्र है, यह सब पापों का बाप है॥
जिस दिन खोजने वाला खो गया
जिसको खोज रहा था, वह हो गया।
स्वामी रामतीर्थ कहते हैं-
तुझको इतना मिटा कि तुझमें तू न रहे।
और द्वैत की बू न रहे।
🚩जय श्री गुरु महाराज जी की🙏🏻
🎙️ नारायण स्वामी Narayan Swami