🕉️🎯👌🏻श्री हरिपुरुषाय नमः🌍🫂

Tum ek gorakhdhandha ho ghazal 

कभी  यहाँ  तुम्हें  ढूँढा, कभी  वहाँ  पहुँचा,

तुम्हारी दीद की खातिर  कहाँ  कहाँ पहुँचा,

ग़रीब मिट गये  पा-माल  हो  गये  लेकिन,

किसी तलक न तेरा आजतक निशाँ पहुँचा,

हो भी नही और हर जां हो, तुम एक........


हर ज़र्रे में किस शान  से  तू  जल्वानुमा है,

हैरान है मगर अक़्ल, के कैसा है तू क्या है?

तुम एक गोरखधंधा हो...


तुझे दैर-ओ-हरम  में  मैंने  ढूँढा  तू  नहीं  मिलता,

मगर तशरीफ़ फरमा तुझको अपने दिल में देखा है

तुम एक गोरखधंधा हो...


ढूँढे  नहीं  मिले  हो, न  ढूँढे  से  कहीं  तुम

और फिर ये तमाशा है जहाँ हम हैं वहीं तुम!

तुम इक गोरख धंधा हो !


जब बजुज़  तेरे  कोई  दूसरा  मौजूद  नहीं,

फिर समझ में नहीं आता तेरा परदा करना

तुम एक गोरखधंधा हो


हरम-ओ-दैर  में   है  जलवा ए पुर्फन  तेरा,

दो घरो का है चिराग, एक रूखे रोशन तेरा


जो उल्फ़त में  तुम्हारी  खो गया है,

उसी खोए  हुए को  कुछ  मिला है,

ना बुतखाने, ना  काबे में  मिला है,

मगर  टूटे  हुए  दिल  में  मिला  है,

अदम बन कर कहीं तू छुप गया है,

कहीं तू हस्त  बन कर  आ गया है,

नहीं है तू  तो  फिर  इंकार  कैसा?

नफी  भी  तेरे  होने  का  पता  है,

मैं जिसको कह रहा हूँ अपनी हस्ती,

अगर वो तू नही  तो  और  क्या है?

नही  आया  ख़्यालों  में  अगर  तू,

तो फिर मैं कैसे समझा तू खुदा है?


हैरान हूँ इस  बात पे  तुम  कौन  हो  क्या  हो?

हाथ आओ तो बुत हाथ ना आओ तो खुदा हो


अक्ल में जो घिर गया  ला-इन्तहा  क्यों कर हुआ

जो समझ में आ गया फिर वो क्योंकर खुदा हुआ


फ़लसफ़ी को बहस के अंदर खुदा मिलता नहीं,

डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं,


पता यूं तो बता देते हो सबको लां मकां अपना,

ताज्जुब है  पर रहते हो  तुम  टूटे  हुए दिल में,


जबके तुझ बिन नहीं कोई मौजूद 

फिर  ये  हंगामा ए खुदा  क्या है...


छुपते नही हो, सामने  आते  नहीं  हो  तुम,

जलवा दिखाके जलवा दिखाते नही हो तुम,

दैर-ओ-हरम के झगड़े  मिटाते नहीं हो तुम,

जो असल बात है वो  बताते  नहीं  तो तुम,

हैरान हूँ मैरे दिल में  समाये  हो किस तरह,

हाँलाके दो  जहाँ  में  समाते  नहीं  तो तुम,

ये माबद-ओ-हरम, ये कालीसा-ओ-दैर क्यूँ,

हरजाई  हो  जभी  तो  बताते नहीं तो तुम,


दिल पे हैरत ने अजब रंग जमा रखा है,

एक  उलझी  हुई  तस्वीर  बना रखा है,

कुछ समझ में नहीं आता के ये चक्कर क्या है?

खेल  क्या  तुमने  अजल   से  रचा  रखा  है?

रूह को  जिस्म  के  पिंजड़े  का बनाकर क़ैदी,

उस पे फिर मौत  का  पहरा भी बिठा रखा है,

दे  के  तदबीर   के   पंछी   को   उड़ाने  तूने,

दाम-ए-तक़दीर  भी  हर  सिम्त बिछा रखा है,

करके  आरैश-ए-क़ौनाईन   की   बरसों  तूने,

ख़त्म  करने  का  भी  मंसूबा  बना  रखा  है,

ला-मकानी  का  बहरहाल  है  दावा भी तुम्हें,

नहन-ओ-अक़लाब का भी पैगाम सुना रखा है

ये बुराई, वो  भलाई, ये  जहन्नुम, वो बहिश्त,

इस उल्टफेर  में  फरमाओ  तो  क्या रखा है?

जुर्म आदम  ने  किया  और  सज़ा  बेटों को,

अदल-ओ-इंसाफ़ का मेआर भी क्या रखा है?

दे के इंसान को दुनिया में खलाफत अपनी,

इक  तमाशा सा  ज़माने  में  बना  रखा है

अपनी पहचान की खातिर है बनाया सब को,

सब की नज़रों से मगर खुद को छुपा रखा है,

तुम एक गोरखधंधा हो


नित  नये  नक़्श  बनाते  हो, मिटा  देते हो,

जाने किस ज़ुर्म-ए-तमन्ना की  सज़ा देते हो?

कभी कंकड़ को बना देते हो  हीरे की कनी,

कभी हीरों को भी  मिट्टी  में  मिला देते हो,

ज़िंदगी कितने ही मुर्दों को अदा की जिसने,

वो मसीहा  भी  सलीबों  पे  सज़ा  देते हो,

ख्वाइश-ए-दीद जो कर बैठे सर-ए-तूर कोई,

तूर ही बर्क- ए- तजल्ली  से  जला  देते हो,

नार-ए-नमरूद में डळवाते हो खुद अपना ख़लील,

खुद  ही  फिर  नार  को  गुलज़ार  बना  देते  हो,

चाह-ए-किनान  में  फैंको  कभी  माह-ए-किनान,

नूर याक़ूब की  आँखों  का  बुझा  देते हो,

दे के युसुफ को कभी मिस्र के बाज़ारों में,

आख़िरकार  शाह-ए-मिस्र  बना  देते  हो,

जज़्ब-ओ-मस्ती की जो मंज़िल पे पहुचता है कोई,

बैठकर  दिल  में   अनलहक़  की  सज़ा  देते  हो,

खुद ही लगवाते हो  फिर  कुफ्र के फ़तवे उस पर,

खुद ही  मंसूर  को  सूली  पे  चढ़ा  देते हो,

अपनी हस्ती भी वो इक रोज़ गँवा बैठता है,

अपने दर्शन की लगन जिसको लगा देते हो,

कोई रांझा जो  कभी  खोज में निकले तेरी,

तुम  उसे  झंग  के  बेले  में  रुला  देते  हो,

ज़ुस्तज़ू  लेके  तुम्हारी  जो  चले कैश कोई,

उस को मजनू किसी लैला का बना देते हो,

जोत सस्सी के  अगर  मन में तुम्हारी जागे,

तुम उसे  तपते  हुए  तल  में  जला देते हो,

सोहनी गर तुम को महिवाल तस्व्वुर कर ले,

उस को बिखरी  हुई  लहरों  में बहा देते हो,

खुद जो चाहो तो सर-ए-अर्श बुलाकर महबूब,

एक ही रात में मेराज करा देते हो तुम एक....


आप ही अपना परदा हो तुम एक गोरखधंधा...

हैरत की इक दुनिया हो तुम एक गोरखधन्धा...


हर एक जबां पे हो लेकिन पता नहीं मालूम 

तुम्हारा  नाम  सुना  है  निशां  नहीं  मालूम 


दिल से अरमां जो निकल जाए तो जुगनू हो जाएं

और आँखों  में  सिमट  आए  तो  आंसू हो जाए


जो कहता हूँ माना  तुम्हें लगता है बुरा सा,

फिर भी है मुझे तुम से बहरहाल गिला सा,

चुप चाप रहे देखते  तुम अर्श-ए-बरीन पर,

तपते हुए करबल में  मोहम्मद का नवासा,

किस तरह पिलाता था लहू अपना वफ़ा को,

खुद तीन दिनो से  वो  अगरचे  था  प्यासा,

दुश्मन तो बहर तौर थे दुश्मन मगर अफ़सोस,

तुम ने भी फराहम  ना  किया पानी ज़रा सा,

हर ज़ुल्म की तौफ़ीक़ है ज़ालिम की विरासत,

मज़लूम  के  हिस्से  में  तसल्ली  ना दिलासा,

कल ताज सजा देखा था जिस शक़्स के सिर पर,

है  आज  उसी  शक़्स  के  हाथों  में  ही  कासा,

यह  क्या  है  अगर  पूछूँ  तो  कहते हो जवाबन,

इस  राज़  से   हो   सकता  नही  कोई  शनसा,


आह-ए-तहकीक में हर गाम पे उलझन देखूं,

वही हालत-ओ-ख़यालात  में  अनबन  देखूं,

बनके  रह  जाता  हूँ  तस्वीर  परेशानी  की,

गौर से जब भी कभी दुनिया का दर्पण देखूं,

एक ही खाक  से  फ़ितरत  के आदत इतने,

कितने हिस्सों में  बँटा  एक  ही आँगन देखूं,

कहीं ज़हमत की सुलगती हुई पतझड़ का सामान,

कहीं   रहमत   के   बरसते   हुए   सावन   देखूं,

कहीं  फुँकारते  दरिया, कहीं खामोश पहाड़,

कहीं जंगल, कहीं सेहरा, कहीं गुलशन देखूं,

खून रुलाता है यह तक्सीम का अंदाज़ मुझे,

कोई  धनवान  यहाँ  पर  कोई  निर्धन देखूं,

दिन के हाथों में फक़त  एक सुलगता सूरज,

रात  की  माँग  सितारों  से  मज़्ज़यन  देखूं,

कहीं  मुरझाए  हुए   फूल   हैं  सच्चाई  के,

और कहीं झूठ के  काँटों पे भी जोबन देखूं,

रात  क्या  शै है, सवेरा क्या है?

यह उजाला यह अंधेरा क्या है?

मैं भी  नाइब हूँ  तुम्हारा  आख़िर,

क्यों यह कहते हो के तेरा क्या है?