🕉️🎯👌🏻श्री हरिपुरुषाय नमः🌍🫂
Dagmag Chhadi De Man Baura Kabeer
डगमग छाड़ि दे मन बौरा।
अब तो जरें बनें बनि आवै,
लीह्नों हाथ सिंधौरा॥
ऐ पागल मन! डगमगाहट छोड़ दे, चंचलता छोड़ दे। अब तो जैसे भी हो, अब तो जैसे भी हो, अब पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं है। अब तो मैं वैसा ही खड़ा हूँ जैसे कोई सती अपने हाथ में सिंदूर का पात्र लिए खड़ी हो। अगर लपटों से गुजरना पड़े तो मैं राजी हूँ। अगर तू लपटों के पार है तो मैं गुजरने को राजी हूं। अगर तू मृत्यु के उस तरफ है तो मैं मृत्यु में से आने का राजी हूँ, मैं मरने को तैयार हूँ। अब तो जैसे भी हो…
होई निसंक मगन ह्वै नाचै,
लोभ मोह भ्रम छाड़ौ।
सूरो कहाँ मरन थे डरपै,
सती न सँचै भाड़ौ॥
कबीर कहते है, अब तो निशंक होकर नाचो। मगन होके नाचो। ‘लोभ मोह भ्रम छाड़ौ’.. छोड़ दो लोभ, मोह, भ्रम। ‘सूरो कहा मरन थें डरपै’.. और वीर पुरुष कहीं मरने से डरते हैं? सती शरीररूपी बर्तन को इकट्ठा नहीं करती, न सजाती है, न संवारती है। सती तो जानती है कि शरीर तो मिट्टी का घड़ा है और तू कह रहा है इस घड़े के लिए बचाऊं? वह कुछ शरीर को संवारने, इस मिट्टी के घड़े को संवारने की बातों में नहीं पड़ती। तुम भी मत पड़ना। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम संन्यस्त होना चाहते हैं, लेकिन समाज का भय है।
कौन है यह समाज? कहां है यह समाज? तुम जैसे ही भयभीत लोगों की भीड़ भय के कारण एक-दूसरे को पकड़ के खड़ी है। वे खुद ही भयभीत हैं, लेकिन जो भी भयभीत होता है वह दूसरे को भी भयभीत करता है। वे तुम्हें भी डरा रहे हैं कि छोड़ के मत जाना भीड़ को। भीड़ कभी पसंद नहीं करती कि कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को उपलब्ध हो जाए, आत्मा को उपलब्ध हो जाए। क्योंकि, जो व्यक्ति भी अपने व्यक्तित्व की तलाश में जाता है, वह भीड़ के मार्ग को छोड़ देता है। उसे पगडंडी खोजनी पड़ती है। उसे निज का मार्ग खोजना पड़ता है। उसे अपने ही पैरों पर भरोसा करना पड़ता है।
अज्ञानियों की भीड़! उसकी तरफ देख के मिलेगा भी क्या? कबीर ने, बुद्ध ने, महावीर ने, सभी ने समाज को फांसी की तरह पाया। वह गले में फंदा है। उसे तुम जीवन समझ रहे हो। वह तुम्हें जकड़े हुए हैं; तुम उसकी वजह से गुलाम हो।
‘लोक वेद कुल की मरजादा।’
फिर वेद है, परंपरा है, शास्त्र है, लोग कहेंगे, यह शास्त्र के विपरीत है; लोग कहेंगे शास्त्र में तो लिखा है, संन्यास लेना आखिरी वक्त, जब मौत करीब ही आ जाए; अंतिम चरण में संन्यासी होना। जवान हो के संन्यासी हो रहे हो? शास्त्र में लिखा नहीं है। यह वेद के विपरीत है।
लोक वेद कुल की मरजादा,
इहै गलै में पासी।
आधा चलि करि पीछा फिरिहैं,
ह्वै ह्वै जग में हाँसी॥
लोक, समाज, वेद, शास्त्र, परंपरा, कुल की मर्यादा, परिवार, वंश की इज्जत..ये सब गले में फाँसी हैं.. ‘इहै गलै मैं पासी।’ क्योंकि मन कहेगा, यह तुम क्या कर रहे हो? यह समाज के विपरीत है। आधा चल के जो पीछे लौटेगा, सारा जग हंसेगा।
यह संसार सकल है मैला,
राम कहैं ते सूचा।
कहत कबीर नाव नहिं छाड़ौ,
गिरत परत चढ़ि ऊँचा॥
यह सारा संसार अपवित्र है, क्योंकि मन से जन्म है। मन कलह है और अपवित्रता है। ‘राम कहैं ते सूचा’.. केवल वे ही इस संसार में पवित्र हैं जिनके हृदय में राम का उच्चार है; जिनकी वाणी में राम का वास है..‘राम कहैं ते सूचा’.. केवल वे ही सच्चे, पवित्र, शुद्ध हैं। कबीर कहते हैं राम नाम नाम मत छोड़ना। गिरना-पड़ना, फिर उठ-उठ के खड़े हो जाना; नामभर मत छोड़ना। नाम को पकड़े रहना। फिर कोई फिक्र मत करना। गिरना भी होगा, पड़ना भी होगा, उठना भी होगा; तुम एक नाम को भर पकड़े रहना तो मंजिल निश्चित है।
एक सम्राट नाराज हो गया अपने मंत्री पर और उसने उसे आजन्म कारावास दे दिया। और गांव के बाहर उसने एक बहुत बड़ी मीनार बना रखी थी, जिस मीनार पर उसे कैद कर दिया। उस मीनार से भागने का कोई उपाय न था। अगर वह भागने की कोशिश करता तो गिरता और मरता। कोई पांच सौ फीट ऊंची मीनार थी। मीनार पर सख्त पहरा था। उसकी पत्नी बड़ी परेशान हुई कि क्या करें। कैसे छुटकारा हो। जीवन भर और अभी जवान था मंत्री; आधी जिंदगी और शेष थी!
तो, पत्नी एक फकीर के पास गई और फकीर से कहा, कुछ रास्ता बताओ। फकीर ने कहा, हम तो एक ही रास्ता जानते हैं, उसका ही थोड़ा उपयोग कर लो..धागे को पहुंचा दो। क्योंकि हम तो एक धागा जानते हैं राम-स्मरण का, और हम संसार की कैद से बाहर हो गए। तो यह तो छोटी कैद है। तुम एक धागा पहुँचा दो।
पत्नी ने कहा, मैं कुछ समझी नहीं। आप पहेलियां मत बूझें। तो उसने कहा, तुम ऐसा करो, एक कीड़े को पकड़ लो..एक ऐसे कीड़े को जिसको गंध आती है और उस कीड़े की मूछों पर मधु लगा दो। मधु की गंध आएगी, कीड़ा उपर की तरफ चढ़ने लगेगा। और चूंकि मूछों पर लगी है मधु, जैसा कीड़ा ऊपर चढ़ेगा वैसे मधु आगे हटती जाएगी? गंध उसे खींचती रहेगी। कीड़े की पूंछ पर थोड़ा सा पतला धागा बांध दो।
ऐसा ही किया। वह कीड़ा चढ़ने लगा। मधु की गंध उसे खींचती है। वह गंध में ऊपर की तरफ जाता है, पतले धागे को अपने पीछे लिए आता है। वजीर तो उत्सुक था ही, चैबीस घंटे विचार कर रहा था कि कोई न कोई उपाय मित्र, पत्नी, कोई न कोई खोजेगा। तो वह सचेत था। उसने एक कीड़े को चढ़ते देखा। और कीड़े की पीछे बंधा हुआ एक धागा आ रहा है, पहचान गया कि कोई उपाय हो गया है। धागा पकड़ के उसने धागा खींचना शुरु कर दिया। धागे में एक पतली रस्सी बंधी आ रही है। रस्सी को पकड़ लिया, रस्सी में एक मोटी रस्सी बंधी आ रही है। मोटी रस्सी से वह उतर गया और भाग गया।
उसने अपनी पत्नी से पूछा, यह तरकीब तुझे किसने बताई?
उसकी पत्नी ने कहा कि एक फकीर ने बताई। उसने कहा कि हम भी धागे को पकड़ के बाहर हो गए..राम नाम का धागा! तो यह भी तो छोटी सी कैद है! हम तो बड़ी कैद के बाहर हो गए!
उस वजीर ने कहा कि अब मैं घर नहीं जाता; मुझे फकीर के पास ले चल, जिसने इस कैद से छुड़ा लिया। अब क्या घर लौटना! अब पूरी ही कैद के बाहर हो जाना उचित है। और राज उसे पता है।
यही है राजः
है कबीर नाव नहिं छाड़ौ, गिरत परत चढ़ि ऊँचा॥
🎙️सतविंदर सिंह Satwinder Singh
https://youtu.be/SYwFOXqJFbg?si=7dJdcMRmZYUIBqjp
🎙️सरबजीत सिंह Sarabjeet Singh
https://youtu.be/_yDW4rQjvwY?si=gdkUT8QcEwsYm78l